हमारे लिए विश्व एक परिवार, ‘उनके’ लिए बाजार- सरसंघचालक मोहन भागवत

not as much diversity in india bhagwat
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दिल्ली: भारत की सोच हमेशा वसुधैव कुटुम्बकम की रही है, जिसका अर्थ होता ही विश्व एक परिवार वही बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा है कि भारत समूची दुनिया को एक परिवार मानता है जबकि दूसरे देश इसे बाजार मानते हैं। साथ ही, भारत दुनिया की अगुआई करने में सक्षम है. और लोग अब उम्मीद के साथ भारत की तरफ देख भी रहे हैं। सरसंघचालक ने कहा कि भारत में जितनी विविधता है, उतनी कहीं नहीं है. इसी से भारत में एकता है.

दुनिया के सभी प्रश्नों का उत्तर हमारी परंपरा में है. विविधताओं को जोड़ने वाला तत्व सिर्फ भारत के पास ही है और हमें इसे विश्व को देना है. भारत की सोच ‘सभी को सुख मिले’ वाली है. भारत की सोच में किसी को छोटा नहीं माना जाता. ये सोच भारत को देनी है. उसमें विकास भी रहेगा, पर्यावरण की सुरक्षा भी रहेगी और व्यक्ति अधिकार संपन्न रहेगा और समाज भी सच्चे अर्थ में प्रबल होगा. भागवत ने यह बात ‘वैश्विक परिदृश्य में भारत की भूमिका’ विषय पर ऑनलाइन उद्बोधन में कही.

दो ध्रुवीय दुनिया-

भागवत ने कहा कि एक समय दुनिया दो ध्रुवीय हो गई थी. एक तरफ अमेरिका और दूसरी तरफ सोवियत संघ. उन्होंने परोक्ष युद्ध किए. उनके सामने द्वितीय महायुद्ध से हानि का उदाहरण सामने था तो उन्होंने दूसरे देशों को अस्त्र शस्त्र देकर युद्ध कराना शुरू कर दिया. इसके साथ ही इन्होंने आर्थिक क्षेत्र पर वर्चस्व स्थापित करना शुरू किया. दुनिया ने ‘शीत युद्ध’ के रूप में एक नई युद्ध की विधा देखी. इसमें अमेरिका जीता और सोवियत संघ परास्त हो गया. अमेरिका महाशक्ति बन गया. कहा गया कि इतिहास समाप्त हो गया और अब ऐसे ही चलने वाला है. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उसको वापस आना पड़ा क्योंकि वह विश्व को एक नहीं रख सका ना ही अपने देश में संतोष ला सका.

बहुध्रुवीय दुनिया-

इस दौर में कई भाषाएं दम तोड़ गई. सभ्यताएं समाप्त हो गई. विविधता को नुकसान पहुंचा. पर्यावरण की हानि हुई. विश्व के दक्षिणी गोलार्द्ध के सभी देश जो प्राकृतिक साधनों में संपन्न थे, वे हर तरह से उन्नत हैं. इन विकसित देशों ने मुट्ठी भर जनसंख्या के लिए सारे साधन लगा दिए. इस दौरान दुनिया में एक ही ध्रुव अमेरिका रहा. लेकिन यह चला नहीं. उन्हीं को 2005 में कहना पड़ा कि सभी के लिए एक ही प्रकार का मॉडल नहीं चल सकता है. हमने देखा कि यह सब करने के बाद भी सर्वत्र अन्य ध्रुव खड़े हो गए. चीन खड़ा हो गया.

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अब चीन यही करना चाह रहा है. कहने के लिए वामपंथी. कहते हैं कि हम समाजवादी हैं। हम कभी पूंजीवाद की ओर नहीं जाएंगे। हम वर्चस्ववादी नहीं है। परंतु संघ के द्वितीय सर संघचालक गुरुजी ने कहा था कि ऐसा नहीं होगा, कुछ दिन बीतने दो। चीन अपनी मूल प्रकृति पर वापस आएगा और वह अपने पूर्व सम्राटों की विस्तारवादी नीति को ही अपनाएगा और ऐसा हो रहा है।

चीन का वर्चस्ववाद-

चीन विश्व की एक बड़ी आर्थिक शक्ति बन गया है और वह अपने प्रभाव को विस्तारित करना चाहता है। सारी बातों का उपयोग उसके लिए करता है। विश्व उसके बारे में क्या कहता है, वह उसकी चिंता नहीं करता है। वह अपने धैर्य पर आगे बढ़ रहा है। यह उसकी प्रकृति है। इससे कई प्रश्न खड़े हो गए हैं। जो धु्रवीय विश्व था, अब बहुध्रुवीय हो गया है।

अब रूस भी अपना खेल खेल रहा है। पश्चिम को दबाकर अपने आपको आगे लाने की चेष्टा कर रहा है। इस सारे खेल में मध्य पूर्व में जो देश थे उनमें खलबली मची हुई है। इसके परिणाम दुनिया पर हो रहे हैं। सांप्रदायिक कट्टरता फिर उभर रही है। इससे विविधता, विश्व शांति, जनतांत्रिक व्यवस्था और विश्व की सुंदरता की समाप्ति पर संकट मंडरा है। सुख तो मिला नहीं, पर्यावरण की हानि का एक बहुत बड़ा प्रश्न सामने है।

भारत की भूमिका-

भागवत ने कहा कि दो हजार वर्षों से सुख के पीछे भागते-भागते, कई प्रयोग करने के बाद दुनिया थक गई है। पश्चिम से सारे प्रयोग हुए और सामान्यत: इस अवधि में भारत का दखल ही नहीं रहा लेकिन अब उसकी भूमिका की प्रतीक्षा हो रही है. भागवत ने कहा कि हमारे यहां देने वाला धनी माना जाता है. इस परिकल्पना को लेकर हमें अर्थनीति को फिर से बनाना होगा. हमारे पास जो है उसका उपयोग सबके लिए होना चाहिए. जैसे विद्या का उपयोग ज्ञान बढ़ाने के लिए होना चाहिए, बल का उपयोग गुंडागर्दी के लिए नहीं बल्कि दुर्बलों की रक्षा के लिए होना चाहिए. धन प्राप्त करेंगे तो दान करेंगे. इस प्रकार के विचार के साथ इस दुनिया की कमियों को दूर करते हुए भारत ऐसा करेगा.

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