नई दिल्ली : 21वीं सदी के इन वर्षो में अब कुदरत अपने दूसरे मायने को ही देखने और दिखाने को विवश हो चुकी है। यानी किसी के साथ अगर कुछ गलत हुआ हो तो उसका हिसाब बराबर करती है। आंखें नहीं खुल रही हैं, लेकिन कुदरत का कहर जारी है। जिस कुदरत को हम शांति का प्रतिरूप मानते थे, वह अब अशांत हो चुकी है।

तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर
चमोली में यकायक ग्लेशियर के टूटने से आई जल-प्रलय इसकी बानगी है। दुनिया के हर हिस्से में ग्लेशियर ज्यादा तेजी से पिघल रहे हैं। दरअसल औद्योगिक क्रांति के बाद पश्चिमी देशों ने प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन शुरू किया। जीवाश्म ईंधनों का इतना प्रदूषण वायुमंडल में उड़ेल दिया कि धरती का औसत तापमान बढ़ गया। ग्लोबल वार्मिंग की दशा पैदा हो गई जो जलवायु से लेकर हर चीज को प्रभावित कर रही है। ग्लेशियरों का समय से जल्दी पिघलना इसी का एक छोटा सा प्रतिकूल प्रभाव है। ग्लोबल वाìमग को रोकने के लिए वैश्विक मंच पर कई संधियां हुईं लेकिन अमीर बनाम गरीब देश के विवाद में उलझकर रह गईं।
धरती की सेहत हो रही ख़राब
पिछले दो सौ साल तक अमीर देशों ने विकास के नाम पर धरती की सेहत खराब की, तब उन्हें किसी ने नहीं रोका और जब विकास की हमारी जरूरत और बारी दोनों आई है तो सिर्फ कार्बन उत्सर्जन में कटौती के तय मापदंड उचित नहीं है। पेरिस जलवायु संधि में विकासशील देशों के इस वाजिब तर्क को सुना गया और विकसित देशों को उनकी वित्तीय मदद के लिए तैयार किया गया। कोशिशें जारी हैं, लेकिन अब तो चूक हो चुकी है। इस चूक को दुरुस्त करने की हमारी साझा कोशिशों की जो तीव्रता होनी चाहिए वह नहीं दिख रही है। ऐसे में चमोली में ग्लेशियर टूटने के बाद आई जलप्रलय और उसे रोके जाने संबंधी आयामों की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
कई झीलों की स्थिति ख़राब
वर्ष 2017 में गंगोत्री ग्लेशियर के मुहाने पर गोमुख में ग्लेशियर मलबे का करीब 30 मीटर ऊंचा ढेर बन गया था। इसके चलते वहां एक झील का निर्माण हो गया था। गनीमत रही कि अब झील नहीं है, मगर मलबे की स्थिति वही है। यहां तीन किलोमीटर की लंबाई में मलबा पड़ा है और इसमें बड़े बोल्डर भी शामिल हैं। उत्तराखंड में 968 ग्लेशियर हैं और इनमें करीब 1253 झीलें बनी हैं। इनमें से कई झीलों की स्थिति खतरनाक हो सकती है। यह झीलें ग्लेशियर के सामने बनी हैं, जिन्हें मोरेन डैम लेक कहा जाता है। इनके फटने की प्रबल संभावना होती है।