क्यों करते हैं आज तुलसी विवाह? जानिए तुलसी विवाह का शुभ मुहूर्त और विधि- पण्डित पुरूषोतम सती से

तुलसी विवाह कहानी
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नई दिल्ली: आज 25 नवंबर को हरि प्रबोधनी/देव उठावनी एकादशी है। आज भगवान विष्णु अपनी चातुर्मास की योग निद्रा से जागते हैं और सृष्टि का संचालन भगवान शिव से अपने हाथ में लेते हैं। चातुर्मास में जब भगवान विष्णु योग निद्रा में होते हैं तो सृष्टि का संचालन भगवान शिव करते हैं। जो भी व्यक्ति चातुर्मास का व्रत करते हैं आज के दिन व्रत की समाप्ति होती है।

 तुलसी विवाह कहानी
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हरि प्रबोधिनी एकादशी का मुहूर्त

एकादशी तिथि 24 नवंबर की मध्यरात्रि 02 बजकर 43 मिनट से शुरू हो गई है और 26 नवंबर की सुबह 05 बजकर 11 मिनट पर समाप्त होगी। इसलिए आप 25 को दिन भर व्रत करके इसका पारायण करें।

भगवान विष्‍णु को योग निद्रा से उठाने का मंत्र

उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द उत्तिष्ठ गरुडध्वज ।
उत्तिष्ठ कमलाकान्त त्रैलोक्यं मङ्गलं कुरु ॥
‘उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये।
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्‌ सुप्तं भवेदिदम्‌॥’
‘उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।
गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥’
‘शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।’

आज के बाद वो सभी कार्य प्रारंभ हो जाते हैं जो चातुर्मास में वर्जित थे जैसे सभी मांगलिक कार्य जो दक्षिणायन में वर्जित नहीं माने गए हैं। आज से ही विवाह संस्कार भी प्रारंभ होते हैं जबकि किसी क्षेत्र विशेष में विवाह संस्कार सूर्य सक्रांति से प्रारंभ हो जाते हैं अर्थात सूर्य जब तुला राशि से वृश्चिक राशि में प्रवेश करते हैं।

 तुलसी विवाह कहानी
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विवाह मुहूर्त 2020:
आज के पश्चात 16 दिसंबर तक विवाह के मुहूर्त हैं फिर उसके बाद विवाह मुहूर्त अप्रैल 2021 मध्य के बाद ही हैं क्योंकि इस बीच वृहस्पति और शुक्र अस्त रहेंगे। विवाह में इन दोनों ग्रहों का अस्त होना वर्जित माना गया है क्योंकि ये दोनों विवाह और प्रजनन के कारक हैं।

तुलसी विवाह:

आज ही के दिन भगवान विष्णु के शालीग्राम रूप का आध्यात्मिक विवाह मां तुलसी से होता है और जो ये विवाह करता है उसको कन्यादान का फल प्राप्त होता है।

 तुलसी विवाह कहानी
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क्यों करते हैं तुलसी विवाह:

एक बार शिव ने अपने तेज को समुद्र में फैंक दिया था। उससे एक महातेजस्वी बालक ने जन्म लिया। यह बालक आगे चलकर जालंधर के नाम से पराक्रमी दैत्य राजा बना। इसकी राजधानी का नाम जालंधर नगरी था।

दैत्यराज कालनेमी की कन्या वृंदा का विवाह जालंधर से हुआ। जालंधर महाराक्षस था। अपनी सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध किया, परंतु समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार किया। वहां से पराजित होकर वह देवी पार्वती को पाने की लालसा से कैलाश पर्वत पर गया।

भगवान देवाधिदेव शिव का ही रूप धर कर माता पार्वती के समीप गया, परंतु मां ने अपने योगबल से उसे तुरंत पहचान लिया तथा वहां से अंतर्ध्यान हो गईं। देवी पार्वती ने क्रुद्ध होकर सारा वृतांत भगवान विष्णु को सुनाया। जालंधर की पत्नी वृंदा अत्यन्त पतिव्रता स्त्री थी। उसी के पतिव्रत धर्म की शक्ति से जालंधर न तो मारा जाता था और न ही पराजित होता था। इसीलिए जालंधर का नाश करने के लिए वृंदा के पतिव्रत धर्म को भंग करना बहुत ज़रूरी था।

इसी कारण भगवान विष्णु ऋषि का वेश धारण कर वन में जा पहुंचे, जहां वृंदा अकेली भ्रमण कर रही थी। भगवान के साथ दो मायावी राक्षस भी थे, जिन्हें देखकर वृंदा भयभीत हो गईं। ऋषि ने वृंदा के सामने पल में दोनों को भस्म कर दिया। उनकी शक्ति देखकर वृंदा ने कैलाश पर्वत पर महादेव के साथ युद्ध कर रहे अपने पति जालंधर के बारे में पूछा। ऋषि ने अपने माया जाल से दो वानर प्रकट किए। एक वानर के हाथ में जालंधर का सिर था तथा दूसरे के हाथ में धड़। अपने पति की यह दशा देखकर वृंदा मूर्छित हो कर गिर पड़ीं। होश में आने पर उन्होंने ऋषि रूपी भगवान से विनती की कि वह उसके पति को जीवित करें।

भगवान ने अपनी माया से पुन: जालंधर का सिर धड़ से जोड़ दिया, परंतु स्वयं भी वह उसी शरीर में प्रवेश कर गए। वृंदा को इस छल का ज़रा आभास न हुआ। जालंधर बने भगवान के साथ वृंदा पतिव्रता का व्यवहार करने लगी, जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया। ऐसा होते ही वृंदा का पति जालंधर युद्ध में हार गया।

इस सारी लीला का जब वृंदा को पता चला, तो उसने क्रुद्ध होकर भगवान विष्णु को ह्रदयहीन शिला होने का श्राप दे दिया। अपने भक्त के श्राप को विष्णु ने स्वीकार किया और शालिग्राम पत्थर बन गये। सृष्टि के पालनकर्ता के पत्थर बन जाने से ब्रम्हांड में असंतुलन की स्थिति हो गई। यह देखकर सभी देवी देवताओ ने वृंदा से प्रार्थना की वह भगवान् विष्णु को श्राप मुक्त कर दे। वृंदा ने विष्णु को श्राप मुक्त कर स्वय आत्मदाह कर लिया। जहां वृंदा भस्म हुईं, वहां तुलसी का पौधा उगा। भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा: हे वृंदा। तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो। अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी। तब से हर साल कार्तिक महीने के देव-उठावनी एकादशी का दिन तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है। जो मनुष्य भी मेरे शालिग्राम रूप के साथ तुलसी का विवाह करेगा उसे इस लोक और परलोक में विपुल यश प्राप्त होगा। उसी दैत्य जालंधर की यह भूमि जलंधर नाम से विख्यात है। यहां माता सती वृंदा का मंदिर भी है।

जिस घर में तुलसी होती हैं, वहां यम के दूत भी असमय नहीं जा सकते। मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है। जो मनुष्य तुलसी व आंवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।

तुलसी विवाह कहानी
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देव उठावनी एकादशी के व्रत का फल:

आज के दिन व्रत करने से हजार अश्वमेघ व राजसूय यज्ञ के बराबर फल की प्राप्ति होती है और जिनकी कुण्डली में चन्द्रमा कमजोर होता है उनको यह व्रत अवश्य करना चाहिए।

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